RPS-2020 CGPSC MAINS WRITING PRACTICE 23 MAY ANSWER

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उत्तर1 – गीता दर्शन में स्थितिप्रज्ञ को कर्मयोग की अवधारणा से जोड़ कर देखा गया है। कुरुक्षेत्र में कृष्ण किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन को कर्तव्य पालन का उपदेश देते हुए कहते है कि ‘पार्थ तुम अपने आत्मिक योग बल से अपने अंतरात्मा को झांककर परमात्मा को देखने का प्रयास करो, संबुद्धि कर्मयोग का आचरण करो और स्थितिप्रज्ञ बन जाओ। दुःख भोगते हुए भी जिसके मन मे कोई उद्वेग/ बेचैनी नही और न ही जो सुख का लालसा रखता है तथा जिसके हृदय में क्रोध, मोह, लोभ आदि विकार के लिए कोई जगह नही होता, वह स्थितिप्रज्ञ है।


उत्तर2 आचार मीमांसा के अंतर्गत गीता दर्शन में स्वधर्म की अवधारणा दी गई है सामान्यतः मनुष्य अपने गुण एवं प्रवृतियों के आधार पर कर्म करता है और इसी आधार पर व्यक्ति के स्वधर्म का निर्धारण होता है। गीता दर्शन में वर्ण धर्मा और आश्रम धर्म के पालन को स्व धर्म की अवधारणा से जोड़कर देखा गया है।


उत्तर3- गीता में निष्काम कर्मयोग की अवधारणा इसके आचार मीमांसा से संबंधित है ।निष्काम कर्मयोग का सिद्धांत ज्ञान योग भक्ति योग एवं कर्मयोग का समन्वय है।
निष्काम का अर्थ है हमें कर्म बिना किसी द्वंद्व के, बिना किसी राग द्वेष, लोभ के करना चाहिए किंतु यह तभी संभव है जब कर्मयोगी को यह ज्ञान हो कि उसका वास्तविक स्वरूप देह नहीं वरन विशुद्ध आत्मा है। सामान्यतः मनुष्य फल की इच्छा में सकाम कर्म करता है जिसके परिणाम स्वरूप काम से क्रोध, क्रोध से मोह, मोह से स्मृति नाश और इससे सर्वनाश की स्थिति उत्पन्न होती है । अतः मनुष्य को फल की इच्छा के बिना निष्काम कर्म करना चाहिए । इस सकाम कर्म योग की अवधारणा में कर्म का नहीं वरन कर्मफल के त्याग को शामिल किया गया है


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